
इस अखिल ब्रह्माण्ड के चराचर प्राणियों में उस सर्वशक्तिमान पर्मेश्वर्र की सत्ता व्यापक है – कोई वस्तु – अणु के अणु से लेकर सौरमंडल के विशिष्ट- से – विशिष्ट तेजपिंड तक – इस प्रकार नहीं जिसमें भगवत सत्ता न हो परन्तु महर्षि कठ ने अपने उपयुक्त वचनों में कहा है कि वह गूढ़आत्मा सब में सामान रूप से प्रकाशित नहीं होता. उस सच्चिदानन्द की सत्ता, चेतना और आनन्द – कला सब में व्याप्त है – परन्तु प्रकाशित सामान रूप से नहीं है. प्रस्तर में उतनी ‘चेतना नहीं है जितनी व्रक्षों में और वृक्षों की अपेक्षा मनुष्य में अधिक चेतनाहै. चेतना की शास्त्रीय परिभाषा न कर सर्वबुद्धिगम्य यह परिभाषा सुगम होगी कि जितना ‘ क्रियात्मक’ व्यापक-मन या इन्द्रियों का – इस चराचर जगत में देखा जाता है – वह ‘प्राण-शक्ति’ पर आधारित होता है और उस प्राण-शक्ति का आधार ‘चेतना’ है. महर्षि चरक ने कहा है-
‘सेन्द्रियं चेतंद्र्व्यं निरिन्द्रियमचेतनम ‘
अर्थात जिन पदार्थों में इन्द्रियां कार्य करती हैं वे चेतन है जिनमें इन्द्रियां कार्य नहीं करती वे अचेतन है. इस व्यावहारिक परिभाषा के अनुसार प्रस्तरदी निरिन्द्रिय होने से ‘अचेतन’ हुए. परन्तु वास्तव में गंभीर द्रष्टि से देखा जय तो जो मनुष्य में जितनी क्रिया है उतनी वृक्षों में नहीं -फिर भी वृक्ष बढ़ते है, उनमें कोमल अंकुर पैदा होते है, पुष्प खिलते है, फल उत्पन्न होते है, वृक्ष बड़े होते है, पुराने होते हैं और सुखकर मर जाते है.
‘अतः संज्ञा भवन्त्येते सुख दुःख समन्विताः।’ (मनुस्म्र्ती )
प्रतिक्षण में उनमें कुछ-न-कुछ किरिया होती रहती है. उसी प्रकार भूगर्भ-विज्ञान वेत्ता हमें बताते है की यह पत्थर दस हजार वर्ष पुराना है, यह एक लाख वर्ष पुराना और यह दस लाख वर्ष पुराना.
इस द्रष्टिकोण से भी नवांश के प्रतीक ‘पनियुग्ल’ का विशेष महत्त्व है. जैसे केवल नाडी को देखने से अनुभवी बैध को सम्पूर्ण शारीर के कुपित दोषों का ( वाट, पिट, काफ के विकारों का ) ज्ञान हो जाता है; जैसे केवल हथेली की गर्मी या पीलापन ज्वर या पीलिया रोग प्रकट कर देता है, उसी प्रकार हाथ का आकर, उँगलियों के आकर, अंगुष्ठ आदि मनुष्य की पित्तवृत्ति बोद्धिक शक्ति और प्रवृत्ति का परिचय दे देते हैं. यह तर्कसम्मत सिद्धांत है, की प्रत्येक कार्य के मूल में ‘कारण’ अवश्य होता है. यदि मनुष्यों के हाथों के आकर भिन्नभिन्न हैं तो ‘कारण’ में भिन्नता नहीं? मस्तिष्क के विभिन्न भाग शारीर के विभिन्न भाग शारीर के विभिन्न अवयवों का संचालन करते हैं.
मस्तिष्क का कौन-सा भाग किस अवयव का संचालन या अधिष्ठाता है या किस अंग से सम्बन्धित है यह निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट होगा –
- सर को घुमाना
- नितम्ब प्रदेश
- घुटने और टखने
- पैर के अंगूठे
- पैर की उंगलियाँ
- कंधे
- कुहनियाँ
- हाथ की कलाई
- हाथ की उंगलियाँ
- तर्जनी
- अंगुष्ठ
- पलक
- मुख की भीतरी भाग
- मुख-ओष्ठ से वेष्टित भाग
- चवना
- नासिका का भीतरी भाग जहाँ कंठ के भीतरी भाग से योग होता है.
- कंठ ( भीतरी भाग ) जहाँ से शब्द उच्चारित किया जाता है .
- नेत्र प्रान्त ( नेत्रों को घुमाकर बगल से देखना )
- सर और आँखों का युगवत संचालन .
मस्तिष्क के किस भाग का शारीर के किस अवयव से विशेष सम्बन्ध है यह बैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हो चूका है. मस्तिष्क के भाग-विशेष के चोट या अन्य कारण से अस्वस्थ हो जाने से, सम्बंधित शारीर का अवयव विशेष, काम करना बंद कर देता है. इन मस्तिष्क के विभिन्न भागों का सम्बन्ध विविध प्रकार की इच्छाओं, आकांक्षाओं तथा क्रियात्मक प्रव्रत्तियों से भी है. इसी कारण शारीर-लक्ष्ण से चेष्टाओं तथा मानसिक क्रियाओं का पता लगता है.
प्रायः जो भी कार्य हाथ करते है उनका स्सर्वप्र्थम अंकुर इच्छा-शक्ति या मस्तिष्क में होता है. भगवन मनु ने कहा है-
‘अकामस्य क्रिया काचिद द्र्श्यते नेह कहिचित ।
यघद्धि कुरुते किंचित तत तत कामस्य चेश्तितम ।।’
इसलिए भिन्न-भिन्न इच्छा वाले व्यक्ति, एक-सी परिस्थिति में रहते हुए भी भिन्न-भिन्न कार्यों की इच्छा करते हैं और उनमें संलग्न होते हैं. संलग्न होने पर, अपनी-अपनी शक्ति और गुण-दोष के अनुसार सफल, विफल या आंशिक सफल होते हैं.
हमारे शास्त्रकारों ने हाथ को विविध भागों में विभाजित किया है –
1- ब्रह्मतीर्थ
2- पित्रतीर्थ
3- पित्रस्थान
4- मत्रस्थान
5- भ्रात्रस्थान
6- बन्धुस्थान
7- विद्या स्थान , सुतस्थान
8- करभ
9- करतल मूल
10- करतल-मध्य
अँगुलियों के अग्र भाग को देवतीर्थ कहते हैं. कार्य-विशेष के लिए हाथ का भाग विशेष, निद्रिष्ट है.
इसी कारण शास्त्रों में लिखा है की भगवन का पूजन करने के लिए चन्दन घिसकर हाथ से उठाकर चंदन की कटोरी में रखना हो तो करभस्थान से करना चाहिए. पितरों को तर्पण करना हो तो पित्रतिर्थ से करना चाहिए. जातकर्म संस्कार के समय अनामिका से घी या शहद चाटना, आदि.
हाथ में देवताओं का वास माना गया है. यह तो प्रसिद्ध ही है :-
कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती ।
करमूले तू गोविन्द प्रभाते कर दर्शनम ।।